International Gita Mahotsav
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महाभारत युद्ध में पूरे विश्व के योद्धाओं ने पांडवों अथवा कौरवों की ओर से हिस्सा लिया केवल दो योद्धाओं ने इस युद्ध में हिस्सा नहीं लिया एक थे श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम दूसरे योद्धा कौन थे ?
महाभारत के युद्ध को भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध माना जाता है। इस युद्ध में कई बड़े-बड़े योद्धाओं ने भाग लिया। युद्ध में शामिल इन योद्धाओं ने अपनी सेनाओं को जिताने के लिए एड़ी-चोटी तक का ज़ोर लगा दिया।
युद्ध के अंत में अधर्म की हार और धर्म की जीत हुई। महाभारत में कई राजाओं ने भी हिस्सा लेकर अपना अहम योगदान इस युद्ध में दिया।
लेकिन वहीं ऐसे राजा भी थे जिन्होंने भारतीय इतिहास की इस सबसे बड़ी लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया।
महाभारत युद्ध में देश-विदेश की सेनाओं ने भाग लिया था। माना जाता है कि कौरवों के साथ कृष्ण की सेना सहित यवन, ग्रीक, रोमन, अमेरिका, मेसिडोनियन आदि जगहों के योद्धा शामिल थे, तो पांडवों के साथ सिर्फ कृष्ण और उनके मित्र राजाओं की सेना थी।
महाभारत युद्ध से पहले बलराम ने श्रीकृष्ण को कई बार समझाया कि हमें युद्ध में शामिल नहीं होना चाहिए, क्योंकि दुर्योधन और अर्जुन दोनों ही हमारे मित्र हैं। ऐसे धर्मसंकट के समय दोनों का ही पक्ष न लेना उचित होगा।
उन्होंने इस समस्या का भी हल निकाल लिया था। उन्होंने दुर्योधन से ही कह दिया था कि तुम मुझे और मेरी सेना दोनों में से किसी एक का चयन कर लो। दुर्योधन ने कृष्ण की सेना का चयन किया।
जिस समय महाभारत के युद्ध की तैयारियां हो रही थीं एक दिन भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम, पांडवों की छावनी में अचानक पहुंचे।
दाऊ भैया को आता देख श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर आदि बड़े प्रसन्न हुए। सभी ने उनका आदर किया। सभी को अभिवादन कर बलराम, युधिष्ठिर के पास बैठ गए।
फिर उन्होंने बड़े भारी मन से कहा कि कितनी बार मैंने कृष्ण को कहा कि हमारे लिए तो पांडव और कौरव दोनों ही एक समान हैं।
इसमें हमें बीच में पड़ने की आवश्यकता नहीं, पर कृष्ण ने मेरी एक न मानी। कृष्ण को अर्जुन के प्रति स्नेह इतना ज्यादा है कि रहा नहीं गया।
अब जिस तरफ कृष्ण हों, उसके विपक्ष में कैसे जाऊं? भीम और दुर्योधन दोनों ने ही मुझसे गदा सीखी है। दोनों ही मेरे शिष्य हैं।
दोनों पर मेरा एक जैसा स्नेह है। इन दोनों कुरुवंशियों को आपस में लड़ते देखकर मुझे अच्छा नहीं लगता अतः मैं तीर्थयात्रा पर जा रहा हूं।
फिर राजा रुक्मी जोकि द्रुम का शिष्य एवं विजय धनुष धारण करने वाला अति यशस्वी दाक्षिणात्य देश के अधिपति भोजवंशी तथा इन्द्र के सखा हिरण्यरोमा नाम वाले संकल्पों के स्वामी महामना भीष्मक का सगा पुत्र सम्पूर्ण दिशाओं में विख्यात रुक्मी पाण्डवों के पास आया। । रूक्मी का पांडव सेना में प्रवेश वह प्रचुर हाथी-घोड़ों वाली विशाल सेना से सम्पन्न भोजकट नामक नगर जो सम्पूर्ण भूमण्डल में विख्यात है। महापराक्रमी भोजराम रुक्मी एक अक्षौहिणी विशाल सेना से घिरा हुआ शीघ्रतापूर्वक पाण्डवों के पास आया। उसने कवच, धनुष, दस्ताने, खंड्ग और तरकस धारण किये सूर्य के समान तेजस्वी ध्वज के साथ पाण्डवों की विशाल सेना में प्रवेश किया । वह वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय करने की इच्छा से आया था। पाण्डवों को उसके आगमन की सूचना दी गयी, तब राजा युधिष्ठिर ने आगे बढ़कर उसकी अगवानी की और उसका यथायोग्य आदर-सत्कार किया। पाण्डवों ने रुक्मी का विधिपूर्वक आदर-सत्कार करके उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। रुक्मी ने भी उन सबको प्रेमपूर्वक अपनाकर सैनिकों सहित विश्राम किया। वीरों के बीच में बैठकर उसने कुन्तीकुमार अर्जुन से कहा- ‘पाण्डुनन्दन! यदि तुम डरे हुए हो तो मैं युद्ध में तुम्हारी सहायता के लिये आ पहुँचा हूँ। मैं इस महायुद्ध में तुम्हारी वह सहायता करूँगा, जो तुम्हारे शत्रुओं के लिय असहय हो उठेगी। इस जगत में मेरे समान पराक्रमी दूसरा कोई पुरुष नहीं है। पाण्डुकुमार! तुम शत्रुओं का जो भाग मुझे सौंप दोगे, मैं समरभूमि में उसका संहार कर डालूँगा। मेरे हिस्से में द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा वीरवर भीष्म एवं कर्ण ही क्यों न हो, किसी को जीवित नहीं छोडूंगा। अथवा यहाँ पधारे हुए ये सब राजा चुपचाप खड़े रहें। मैं अकेला ही समरभूमियों में तुम्हारे सारे शत्रुओं का वध करके तुम्हें पृथ्वी का राज्य अर्पित कर दूंगा।अर्जुन का रुक्मी को उत्तर देना धर्मराज युधिष्ठिर तथा भगवान श्रीकृष्ण के समीप अन्य सब राजाओं के सुनते हुए रुक्मी के ऐसा कहने पर परमबुद्धिमान कुन्तीपुत्र अर्जुन ने वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर की ओर देखते हुए मित्रभाव से हँसकर कहा- ‘वीर! मैं आचार्य द्रोण को अपना गुरु कहता हूँ और स्वयं उनका शिष्य कहलाता हूँ। इसके सिवा साक्षात भगवान श्रीकृष्ण हमारे सहायक हैं और मैं अपने हाथ में गाण्डीव धनुष धारण करता हूँ। ऐसी स्थिति में मैं अपने-आपको डरा हुआ कैसे कह सकता हूँ? वीरवर! कौरवों की घोष यात्रा के समय जब मैंने महाबली गन्धर्वों के साथ युद्ध किया था, उस समय कौन-सा मित्र मेरी सहायता के लिये आया था। खाण्डव वन में देवताओं और दानवों से परिपूर्ण भंयकर युद्ध में जब मैं अपने प्रतिपक्षियों के साथ युद्ध कर रहा था, उस समय मेरा कौन सहायक था? जब निवात कवच तथा कालकेय नामक दानवों के साथ छिड़े हुए युद्ध में अकेला ही लड़ रहा था, उस समय मेरी सहायता के लिये कौन आया था? इसी प्रकार विराट नगर में जब कौरवों के साथ होने वाले संग्राम में मैं अकेला ही बहुत-से वीरों के साथ युद्ध कर रहा था, उस समय मेरा सहायक कौन था? मैंने युद्ध में सफलता के लिये रुद्र, इंद्र, यम, कुबेर, वरुण, अग्नि, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा भगवान श्रीकृष्ण की आराधना की है। मैं तेजस्वी, दृढ़ एवं दिव्य गाण्डीव धनुष धारण करता हूँ। मेरे पास अक्षय बाणों से भरे हुए तरकस मौजूद हैं और दिव्यास्त्रों के ज्ञान से मेरी शक्ति बढ़ी हुई है। नरश्रेष्ठ! फिर मेरे जैसा पुरुष साक्षात वज्रधारी इन्द्र के सामने भी 'मैं डरा हुआ हूँ’ यह सुयश का नाश करने वाला वचन कैसे कह सकता है? महाबाहो! मैं डरा हुआ नहीं हूँ तथा मुझे सहायक की भी आवश्यकता नहीं है। *आप अपनी इच्छा के अनुसार जैसा उचित समझें अन्यत्र चले जाइये या यहीं रहिये’
बुद्धिमान अर्जुन का यह वचन सुनकर रुक्मी अपनी समुद्र सदृश विशाल सेना को लौटाकर उसी प्रकार दुर्योधन के पास गया। दुर्योधन से मिलकर रुक्मी ने उससे भी वैसी ही बातें कहीं। तब अपने को शूरवीर मानने वाले दुर्योधन ने भी उसकी सहायता लेने से इन्कार कर दिया* । इस प्रकार उस युद्ध से दो ही वीर अलग हो गये थे- एक तो वृष्णिवंशी रोहिणीनन्दन बलराम और दूसरा राजा रुक्मी। बलराम जी के तीर्थयात्रा में और भीष्मकपुत्र रुक्मी के अपने नगर को चले जाने पर पाण्डवों ने पुन: गुप्त मन्त्रणा के लिये बैठक की।
इस प्रकार दो योद्धा महाभारत युद्ध से बाहर हो गये
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महाभारत युद्ध में पूरे विश्व के योद्धाओं ने पांडवों अथवा कौरवों की ओर से हिस्सा लिया केवल दो योद्धाओं ने इस युद्ध में हिस्सा नहीं लिया एक थे श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम दूसरे योद्धा कौन थे ?
महाभारत के युद्ध को भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध माना जाता है। इस युद्ध में कई बड़े-बड़े योद्धाओं ने भाग लिया। युद्ध में शामिल इन योद्धाओं ने अपनी सेनाओं को जिताने के लिए एड़ी-चोटी तक का ज़ोर लगा दिया।
युद्ध के अंत में अधर्म की हार और धर्म की जीत हुई। महाभारत में कई राजाओं ने भी हिस्सा लेकर अपना अहम योगदान इस युद्ध में दिया।
लेकिन वहीं ऐसे राजा भी थे जिन्होंने भारतीय इतिहास की इस सबसे बड़ी लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया।
महाभारत युद्ध में देश-विदेश की सेनाओं ने भाग लिया था। माना जाता है कि कौरवों के साथ कृष्ण की सेना सहित यवन, ग्रीक, रोमन, अमेरिका, मेसिडोनियन आदि जगहों के योद्धा शामिल थे, तो पांडवों के साथ सिर्फ कृष्ण और उनके मित्र राजाओं की सेना थी।
महाभारत युद्ध से पहले बलराम ने श्रीकृष्ण को कई बार समझाया कि हमें युद्ध में शामिल नहीं होना चाहिए, क्योंकि दुर्योधन और अर्जुन दोनों ही हमारे मित्र हैं। ऐसे धर्मसंकट के समय दोनों का ही पक्ष न लेना उचित होगा।
उन्होंने इस समस्या का भी हल निकाल लिया था। उन्होंने दुर्योधन से ही कह दिया था कि तुम मुझे और मेरी सेना दोनों में से किसी एक का चयन कर लो। दुर्योधन ने कृष्ण की सेना का चयन किया।
जिस समय महाभारत के युद्ध की तैयारियां हो रही थीं एक दिन भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम, पांडवों की छावनी में अचानक पहुंचे।
दाऊ भैया को आता देख श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर आदि बड़े प्रसन्न हुए। सभी ने उनका आदर किया। सभी को अभिवादन कर बलराम, युधिष्ठिर के पास बैठ गए।
फिर उन्होंने बड़े भारी मन से कहा कि कितनी बार मैंने कृष्ण को कहा कि हमारे लिए तो पांडव और कौरव दोनों ही एक समान हैं।
इसमें हमें बीच में पड़ने की आवश्यकता नहीं, पर कृष्ण ने मेरी एक न मानी। कृष्ण को अर्जुन के प्रति स्नेह इतना ज्यादा है कि रहा नहीं गया।
अब जिस तरफ कृष्ण हों, उसके विपक्ष में कैसे जाऊं? भीम और दुर्योधन दोनों ने ही मुझसे गदा सीखी है। दोनों ही मेरे शिष्य हैं।
दोनों पर मेरा एक जैसा स्नेह है। इन दोनों कुरुवंशियों को आपस में लड़ते देखकर मुझे अच्छा नहीं लगता अतः मैं तीर्थयात्रा पर जा रहा हूं।
फिर राजा रुक्मी जोकि द्रुम का शिष्य एवं विजय धनुष धारण करने वाला अति यशस्वी दाक्षिणात्य देश के अधिपति भोजवंशी तथा इन्द्र के सखा हिरण्यरोमा नाम वाले संकल्पों के स्वामी महामना भीष्मक का सगा पुत्र सम्पूर्ण दिशाओं में विख्यात रुक्मी पाण्डवों के पास आया। । रूक्मी का पांडव सेना में प्रवेश वह प्रचुर हाथी-घोड़ों वाली विशाल सेना से सम्पन्न भोजकट नामक नगर जो सम्पूर्ण भूमण्डल में विख्यात है। महापराक्रमी भोजराम रुक्मी एक अक्षौहिणी विशाल सेना से घिरा हुआ शीघ्रतापूर्वक पाण्डवों के पास आया। उसने कवच, धनुष, दस्ताने, खंड्ग और तरकस धारण किये सूर्य के समान तेजस्वी ध्वज के साथ पाण्डवों की विशाल सेना में प्रवेश किया । वह वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय करने की इच्छा से आया था। पाण्डवों को उसके आगमन की सूचना दी गयी, तब राजा युधिष्ठिर ने आगे बढ़कर उसकी अगवानी की और उसका यथायोग्य आदर-सत्कार किया। पाण्डवों ने रुक्मी का विधिपूर्वक आदर-सत्कार करके उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। रुक्मी ने भी उन सबको प्रेमपूर्वक अपनाकर सैनिकों सहित विश्राम किया। वीरों के बीच में बैठकर उसने कुन्तीकुमार अर्जुन से कहा- ‘पाण्डुनन्दन! यदि तुम डरे हुए हो तो मैं युद्ध में तुम्हारी सहायता के लिये आ पहुँचा हूँ। मैं इस महायुद्ध में तुम्हारी वह सहायता करूँगा, जो तुम्हारे शत्रुओं के लिय असहय हो उठेगी। इस जगत में मेरे समान पराक्रमी दूसरा कोई पुरुष नहीं है। पाण्डुकुमार! तुम शत्रुओं का जो भाग मुझे सौंप दोगे, मैं समरभूमि में उसका संहार कर डालूँगा। मेरे हिस्से में द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा वीरवर भीष्म एवं कर्ण ही क्यों न हो, किसी को जीवित नहीं छोडूंगा। अथवा यहाँ पधारे हुए ये सब राजा चुपचाप खड़े रहें। मैं अकेला ही समरभूमियों में तुम्हारे सारे शत्रुओं का वध करके तुम्हें पृथ्वी का राज्य अर्पित कर दूंगा।अर्जुन का रुक्मी को उत्तर देना धर्मराज युधिष्ठिर तथा भगवान श्रीकृष्ण के समीप अन्य सब राजाओं के सुनते हुए रुक्मी के ऐसा कहने पर परमबुद्धिमान कुन्तीपुत्र अर्जुन ने वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर की ओर देखते हुए मित्रभाव से हँसकर कहा- ‘वीर! मैं आचार्य द्रोण को अपना गुरु कहता हूँ और स्वयं उनका शिष्य कहलाता हूँ। इसके सिवा साक्षात भगवान श्रीकृष्ण हमारे सहायक हैं और मैं अपने हाथ में गाण्डीव धनुष धारण करता हूँ। ऐसी स्थिति में मैं अपने-आपको डरा हुआ कैसे कह सकता हूँ? वीरवर! कौरवों की घोष यात्रा के समय जब मैंने महाबली गन्धर्वों के साथ युद्ध किया था, उस समय कौन-सा मित्र मेरी सहायता के लिये आया था। खाण्डव वन में देवताओं और दानवों से परिपूर्ण भंयकर युद्ध में जब मैं अपने प्रतिपक्षियों के साथ युद्ध कर रहा था, उस समय मेरा कौन सहायक था? जब निवात कवच तथा कालकेय नामक दानवों के साथ छिड़े हुए युद्ध में अकेला ही लड़ रहा था, उस समय मेरी सहायता के लिये कौन आया था? इसी प्रकार विराट नगर में जब कौरवों के साथ होने वाले संग्राम में मैं अकेला ही बहुत-से वीरों के साथ युद्ध कर रहा था, उस समय मेरा सहायक कौन था? मैंने युद्ध में सफलता के लिये रुद्र, इंद्र, यम, कुबेर, वरुण, अग्नि, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा भगवान श्रीकृष्ण की आराधना की है। मैं तेजस्वी, दृढ़ एवं दिव्य गाण्डीव धनुष धारण करता हूँ। मेरे पास अक्षय बाणों से भरे हुए तरकस मौजूद हैं और दिव्यास्त्रों के ज्ञान से मेरी शक्ति बढ़ी हुई है। नरश्रेष्ठ! फिर मेरे जैसा पुरुष साक्षात वज्रधारी इन्द्र के सामने भी 'मैं डरा हुआ हूँ’ यह सुयश का नाश करने वाला वचन कैसे कह सकता है? महाबाहो! मैं डरा हुआ नहीं हूँ तथा मुझे सहायक की भी आवश्यकता नहीं है। *आप अपनी इच्छा के अनुसार जैसा उचित समझें अन्यत्र चले जाइये या यहीं रहिये’
बुद्धिमान अर्जुन का यह वचन सुनकर रुक्मी अपनी समुद्र सदृश विशाल सेना को लौटाकर उसी प्रकार दुर्योधन के पास गया। दुर्योधन से मिलकर रुक्मी ने उससे भी वैसी ही बातें कहीं। तब अपने को शूरवीर मानने वाले दुर्योधन ने भी उसकी सहायता लेने से इन्कार कर दिया* । इस प्रकार उस युद्ध से दो ही वीर अलग हो गये थे- एक तो वृष्णिवंशी रोहिणीनन्दन बलराम और दूसरा राजा रुक्मी। बलराम जी के तीर्थयात्रा में और भीष्मकपुत्र रुक्मी के अपने नगर को चले जाने पर पाण्डवों ने पुन: गुप्त मन्त्रणा के लिये बैठक की।
इस प्रकार दो योद्धा महाभारत युद्ध से बाहर हो गये
रूक्मी
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